17 Oct 2007

ये कहां जा रहे है हम ................

अभी कुछ ही दिनों पहले अख़बार मे छपी एक खबर पढ़कर दिल दहल उठा। रोंगटे खडे कर देने वाली खबर थी । उत्तर प्रदेश के बागपत शहर के एक स्थानीय नर्सिंग होम मे माया नाम कि एक युवती को प्रसव के लिए भर्ती कराया गया जहाँ पर वहां के डाक्टर राकेश व उनकी पत्नी डाक्टर शालिनी विद्यार्थी ने युवती के परिजनों से एडवांस में ३५ हज़ार रुपये जमा करवाने को कहा गया। इस पर उसके परिजनों ने २५ हज़ार रुपये जमा करवा दिए और शेष १० हज़ार रुपये तुरंत जमा करवाने मे असमर्थता जताते हुए प्रसव के बाद जमा करवाने को कहा। पर इसी बीच प्रसव के दौरान डॉक्टर शालिनी ने क्रोधवश नवजात शिशु के हाथ और गर्दन काट दिए और कटे हुए अंगों को प्रसूता के बिस्तर के नीचे छिपा दिया व प्रसूता और नवजात बच्चे को लाइलाज बताते हुए दिल्ली ले जाने को कहा. युवती के परिजनों और अन्य लोगों को जब डॉक्टर की करतूत का पता चला तो उन्होंने अस्पताल में खूब हंगामा किया ओर अस्पताल को आग लगा दी. इस सारी भगदड़ ओर मे कई अन्य लोग भी गम्भीर रूप से घायल हो गए. उन्होंने अस्पताल में खूब हंगामा किया ओर अस्पताल को आग लगा दी. इस सारी भगदड़ ओर आपाधापी मे कई अन्य लोग भी गम्भीर रूप से घायल हो गए.
अब सवाल ये उठता है के ये हम कहाँ जा रहे है. क्या हमारी संवेदनए सचमुच मर चुकी हैं अधिक से अधिक धन कमाने की चाह मे भौतिक चीजों के पीछे भागते - भागते हम इतने दूर निकल आए है के मानवता, नैतिक मुल्य, प्यार, दया, अपनापन, सहनशीलता अदि भावनाएँ और शब्द अपना अर्थ को चुके है और अधिक से अधिक धन कमाना ही हमारा लक्ष्य बन गया है चाहे वह किसी भी कीमत पर प्राप्त किया जाए पर धन तो आना ही चाहिए. जरा - जरा सी बात पर इस कदर क्रोधित हो जाते है की पल मे ही हमारा विवेक नष्ट हो जाता है और हम वो कर बैठते है जिससे कभी - कभी मानवता भी शर्मसार हो जाती है.

अगर इसी तरह चलता रहा तो कहीँ ऐसा न हो की विज्ञान ओर तकनीक के क्षेत्र मैं हम आसमान की बुलंदियों पर पहुँच जायें ओर इंसानियत और मानवता मैं हम पाषाण युग मैं पहुँच जाए और जानवरों से भी आगे निकल जायें .

(ख़बर सन्दर्भ - राष्ट्रीय सहारा और दैनिक जागरण)